Sanjha Morcha

7वें वेतन आयोग के बाद, सेना के गुस्से की व्याख्या…

7वें वेतन आयोग के बाद, सेना के गुस्से की व्याख्या...

तुलनाएं बेहद अवांछित होती है, नागवार गुज़रती हैं, लेकिन हमारे संदर्भ में सरकारी अधिकारियों के साथ तुलना किया जाना तो जैसे हमेशा लागू होने वाला नियम बना दिया गया है, जो ‘लाल बत्ती कल्चर’ का ही एक और उदाहरण है, लेकिन इस बार सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों में तो सारी हदें पार कर दी गई हैं, जब ओआरओपी जैसे जटिल विषय को भी सभी सरकारी कर्मचारियों तक पहुंचा दिया है, और इस बात को समझने की कोशिश तक नहीं की गई कि सेना ने ओआरओपी की मांग की क्यों थी…

शुरू करते हैं 1947 से, जब भारत को आज़ाद होने के साथ ही अंग्रेज़ों से थलसेना, नौसेना और वायुसेना भी मिली… अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद जब भारत की साम्राज्य बढ़ाने की कोई योजना ही नहीं थी, तो महसूस किया गया कि जो हमारे पास है, वह पर्याप्त है, क्योंकि हमें ज़्यादा से ज़्यादा देश के भीतर ही कुछ तनावपूर्ण स्थितियों से जूझना होगा, या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में मदद पहुंचानी होगी… लेकिन आज़ादी के तीन ही महीने बाद आंखें खोल देने वाला वाकया हुआ, जब जम्मू एवं कश्मीर में युद्ध शुरू हो गया… दो साल तक जारी रही उस लड़ाई से कुछ कड़वे सबक भी सीखने को मिले, और उसके बाद दूसरा झटका लगा 1962 में, जिसने संगठन को तोड़कर रख दिया…

इन सालों में इन झटकों के बाद ब्रिटिश काल में बनी रही सेना की अहमियत कम होती चली गई, और वह नागरिक सरकार के नियंत्रण में आती चली गई, जिसका अर्थ राजनैतिक नियंत्रण था, और फिर एक ओर रणनीतिक विचार-विमर्श व नीति और दूसरी तरफ ज़रूरी मदद पहुंचाने तक सीमित होकर रह गई… पहले रणनीतिक रखरखाव और तय किए गए नियमों के मुताबिक रोज़मर्रा के कामकाज को सेना को खुद ही संभालना था, लेकिन समय के साथ-साथ यह समीकरण पलटते चले गए और धीरे-धीरे सेना द्वारा किया जाने वाला हर काम ‘नौकरशाही के नियंत्रण’ में पहुंच गया… यह बदलाव इतना संपूर्ण था कि हाल ही में एक अग्रणी समाचारपत्र की हेडलाइन थी, ‘बाबुओं को मिलेगा तोहफा’, और इस हेडलाइन में देश की सेनाओं को भी उन लाखों-करोड़ों लोगों के साथ जोड़ दिया गया, जो पूरे हफ्ते में पांच दिन नौ से पांच बजे तक फाइल सरकाने का काम किया करते हैं… 1965 का भारत-पाक युद्ध, 1971 की शानदार जीत, नागरिक प्रशासन की सहायता के लिए देशी-विदेशी धरती पर सफलतापूर्वक किए गए बीसियों काम, और इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले दुनियाभर में हमारी सेना के शानदार प्रदर्शन से साबित होता है कि हम बाबुओं से कितने अलग हैं…

चिंता की दूसरी बड़ी वजह है सैन्यबल अधिकारियों की सेवानिवृत्ति की आयु… किसी भी अन्य सरकारी नौकरी, जहां सभी स्तरों के कर्मचारियों-अधिकारियों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है, से इतर सैन्य अधिकारी 37 साल की आयु से सेवानिवृत्त होने लगते हैं, और 13 लाख फौजियों में से कुल एक फीसदी ही 60 की आयु तक सेना में रह पाते हैं… यहां कोई भी जागरूक पाठक ध्यान दे सकता है कि तुलना नहीं हो सकती… सो, इन हालात में जब आप सभी के लिए वेतनमान और भत्ते एक समान कर देंगे, तो गुस्सा तो आएगा…

इस गुस्से को बढ़ाने वाला तीसरा और सबसे अहम पहलू है हमारा खुद का, परिवार का, बच्चों का तथा निर्भर माता-पिता और भाई-बहनों का अस्थिर और बार-बार शहर बदलता रहन-सहन, और लंबे-लंबे समय तक उनसे दूरियां, जिन्हें व्यापक रूप से “सेवा की अनिवार्यता” कहा जाता है…

दुनिया के अधिकतर देशों में नागरिक अधिकारियों की तुलना में 15 से 20 फीसदी बढ़ोतरी सेनाधिकारियों को दी ही जाती है… लेकिन हमारे देश में 7वें वेतन आयोग ने ठीक इसका उलट किया है… हालांकि अध्यक्ष जस्टिस एके माथुर ने जुबानी तौर पर सैन्य वेतन में 30 फीसदी की सिफारिश की है, लेकिन वेतन आयोग, और अब सरकार द्वारा भी पेश किए गए आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं… एक बार फिर लगने लगा है कि मकसद सेना के स्तर को घटाकर अन्य सरकारी कर्मचारियों की तुलना में नीचे ले आना है…

इस देश और यहां सत्ता में 70 साल से बैठी ताकतों ने कभी किसी भी वेतन आयोग में सेना के किसी प्रतिनिधि को जगह नहीं दी, और यह भी एक वजह थी कि छठे वेतन आयोग में सेना से जुड़ी विसंगतियां 10 साल बीतने पर भी ठीक नहीं हो पाई हैं… गुस्से की एक और वजह…

मैं इस मुद्दे पर लगातार लिखता रह सकता हूं, क्योंकि जिन सभी विषयों को सेना द्वारा सीधे देखे जाने की ज़रूरत है, उनकी लिस्ट बहुत लंबी है… जैसे – शॉर्ट सर्विस के हालात, सीमित तरक्कियां, विकलांगता, और भी बहुत कुछ… फिलहाल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मौजूदा हालात में बाबुओं को लेकर जो मुद्दे सेना के रोंगटे खड़े कर देते हैं, उनका ज़िक्र नीचे की टेबल में किया गया है…

सेना ने अपनी निराशा को बिल्कुल साफ-साफ शब्दों में बता दिया है, जब तीनों सेना प्रमुखों ने सरकार के प्रतिनिधियों से मुलाकात की… अंतिम मंजूरी को लेकर रक्षा मंत्रालय भी निराशा व्यक्त कर चुका है… उम्मीद है कि बातचीत की जाएगी, मुद्दों का समाधान ढूंढा जाएगा, और सरकारी आदेश जारी किया जाएगा, ताकि सभी को संतुष्टि मिल सके… अंत में, सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि सुरक्षा तथा देश की रक्षा पर किए जाने वाले खर्च को कम महत्व देना संभव नहीं…

अगर यह खर्च निरर्थक भी लगता है, तो होने दो, क्योंकि देश की प्रभुसत्ता के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता…
 

कर्नल अनिल कौल (VrC) एनडीए, आईएमए डीएसएससी तथा एडब्ल्यूसी में प्रशिक्षित हैं… उन्होंने आर्मर्ड कॉर्प्स में 32 साल सेवाएं दीं… युद्ध में वीरता के वीर चक्र से सम्मानित हैं… युद्ध में लगी चोटों के कारण 80 प्रतिशत दिव्यांग हैं…

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