Sanjha Morcha

ब्लॉग: सेना की वीरता मोदी सरकार की राजनैतिक पूंजी नहीं है

नरेंद्र मोदी, सेना और सरकार

सैनिकों के मेडल नेताओं के कुर्तों पर नहीं जँचते.

देश में अगर किसी संस्था की इज़्ज़त अब तक बची हुई है तो वह सेना है. यही वजह है कि सेना की साख और उससे जुड़ी जनभावनाओं के राजनीतिक दोहन की कोशिश ज़ोर-शोर से जारी है.

अपने 48वें मासिक संबोधन में पीएम मोदी ने अपने मन की एक दिलचस्प बात कही है.

उन्होंने कहा कि “अब यह तय हो चुका है कि हमारे सैनिक उन लोगों को मुंहतोड़ जवाब देंगे जो राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने का प्रयास करेंगे.”

क्या पाकिस्तान की तरफ़ से आने वाली हर गोली और हर गोले का जवाब भारतीय सेना अब से पहले नहीं दे रही थी? क्या सेना को कोई नए निर्देश दिए गए हैं? बिल्कुल नहीं.

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जिस तरह हिंदू, राष्ट्र, सरकार, देश, मोदी, बीजेपी, संघ, देशभक्ति वगैरह को एक-दूसरे का पर्यायवाची बना दिया गया है, अब उसमें सेना को भी जोड़ा जा रहा है ताकि इनमें से किसी एक की आलोचना को, पूरे राष्ट्र की और उसकी देशभक्त सेना की आलोचना ठहराया जा सके.

प्रधानमंत्री ने वाक़ई नई बात तय की है, क्योंकि सेना का काम विदेशी हमलों से देश की रक्षा करना है लेकिन क्या ‘राष्ट्र की शांति और उन्नति’ के माहौल को नष्ट करने वालों से भी अब सेना निबटेगी?

उनकी इस बात पर गहराई से सोचना चाहिए, यह कोई मामूली बात नहीं है. उनके कहने का आशय है कि उनकी सरकार ने राष्ट्र में शांति और उन्नति का माहौल बनाया है, उसे नष्ट करने वाला कौन है, इसकी व्याख्या के सभी विकल्प खुले रखे गए हैं और वक्त-ज़रूरत के हिसाब से तय किए जा सकते हैं.

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क्या “राष्ट्र की शांति और उन्नति के माहौल को नष्ट करने वालों” के तौर पर विपक्ष, मीडिया, अल्पसंख्यक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भी बारी आ सकती है?

दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में सेना और राजनीति को अलग रखने की स्थापित परंपरा रही है और उसकी ठोस वजहें हैं, लेकिन भारत में सेना को राजनीति के केंद्र में लाने की रणनीति के लक्षण काफ़ी समय से दिख रहे हैं. शिक्षण संस्थानों में टैंक खड़े करके छात्रों में देशभक्ति की भावना का संचार करने का प्रयास या सेंट्रल यूनिवर्सिटियों में 207 फ़ीट ऊंचा राष्ट्रध्वज लहराने जैसे काम तो लगातार होते ही रहे हैं.

यह सब सावरकर के मशहूर ध्येय वाक्य के भी अनुरूप है कि “राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण” किया जाना चाहिए.

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नरेंद्र मोदी, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान हिंदुस्तानइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

पराक्रम दिवस के बहाने

पाकिस्तान की सीमा के भीतर हमला करने की दूसरी बरसी को ‘पराक्रम दिवस’ घोषित कर दिया गया. मज़ेदार बात ये है कि पिछले साल ऐसा करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी, इस साल ज़रूरत महसूस हुई है तो उसके कारण भी हैं.

पिछले साल नीरव मोदी भागे नहीं थे, नोटबंदी के आंकड़े नहीं आए थे और सबसे बढ़कर रफ़ाल का हंगामा नहीं था, ऐसी हालत में पराक्रम दिवस को धूमधाम से मनाना एक अच्छा उपाय था. ये बात दीगर है कि 126 लड़ाकू विमानों की जगह सिर्फ़ 36 विमान ख़रीदने से सेना कैसे मज़बूत होगी, इसका जवाब नहीं मिल रहा है.

वाइस चीफ़ एयर मार्शल एसबी देव नियम-क़ानून जानते हैं, उन्होंने बार-बार कहा कि “मुझे इस मामले में बोलना नहीं चाहिए”, “मैं इस मामले में बोलने के लिए अधिकृत नहीं हूँ”, “मेरा बोलना ठीक नहीं होगा”… लेकिन ये ज़रूर कह गए कि “जो विवाद पैदा कर रहे हैं उनके पास पूरी जानकारी नहीं है.” ख़ैर, लोग जानकारी ही तो मांग रहे हैं, मिल कहाँ रही है?

क्या वाइस चीफ़ मार्शल ने यह बयान बिना सरकार की सहमति के दिया होगा? एक राजनीतिक फ़ैसले को सही साबित करने के लिए सेना को आगे करने से जुड़े नैतिक सवाल जिन्हें नहीं दिखते, उन्हें किसी भाषा में नहीं बताया जा सकता कि इसमें क्या ग़लत है.

नरेंद्र मोदी, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान हिंदुस्तानइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES
Image captionगुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने सेना के मुलाक़ात के दौरान यह तस्वीर खिंचाई थी

ऐसी कितनी ही मिसालें हैं जब इस सरकार ने सेना को राजनीतिक मंच पर लाने की रणनीति अपनाई. एक बेकसूर कश्मीरी को जीप पर बांधकर घुमाने वाले मेजर गोगोई को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की अनुमति देना ऐसी ही अभूतपूर्व घटना थी. वही मेजर गोगोई श्रीनगर होटल कांड में दोषी पाए गए हैं और कार्रवाई का सामना कर रहे हैं.

सेना प्रमुख बिपिन रावत लगातार मीडिया से बात कर रहे हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं जो कि इस देश के प्रधानमंत्री ने आज तक नहीं की. उन्होंने बहुत सारी ऐसी बातें कही हैं जो इस देश में किसी सेनाध्यक्ष के मुंह से पहले कभी नहीं सुनी गई.

और तो और, उन्होंने एक परिचर्चा में ये तक कह दिया कि असम में बदरूद्दीन अजमल की पार्टी “एआईयूडीएफ़ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है”, इसके बाद उन्होंने कहा कि असम के कुछ ज़िलों में मुसलमानों की आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. उनके इस राजनीतिक बयान पर काफ़ी हंगामा हुआ था.

सेना के साथ अन्याय

सेना अगर पराक्रम दिखा रही है तो मोदी सरकार की वजह से नहीं है, न ही पिछली किसी सरकार की वजह से. सेना कठिन हालात में अपनी ज़िम्मेदारी हमेशा से निभाती रही है, उसका क्रेडिट अगर सरकार लेने की कोशिश करेगी तो यह सेना के साथ अन्याय है.

नरेंद्र मोदी, सर्जिकल स्ट्राइक, पाकिस्तान हिंदुस्तानइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

सेना के प्रति जनता में जो सम्मान का भाव है, उसे सरकार के प्रति सम्मान की तरह दिखाने की चालाक कोशिश, सेना और जनता दोनों के साथ छल है.

सेना की वीरता का श्रेय लेने वालों को मुश्किल सवालों के जवाब भी देने होंगे. देश की रक्षा में लगे अर्धसैनिक बल के जवान तेजबहादुर यादव याद हैं आपको?

वही तेजबहादुर जो जली हुई रोटी और पनीली दाल सोशल मीडिया पर दिखा रहे थे, इसी जुर्म में उनकी नौकरी भी चली गई. अब जवानों को रोटी ठीक मिल रही है या नहीं, कोई दावे से नहीं कह सकता. ‘वन रैंक वन पेंशन’ का लंबा आंदोलन इसी देशभक्त सरकार के कार्यकाल में हुआ और उस दौरान सरकार का रवैया ऐसा तो नहीं था कि सैनिक उसे अपना शुभचिंतक मानें.

सेना को अपना काम करने की पूरी सुविधा देना सरकार का काम है.

देशभक्ति से ओतप्रोत इसी सरकार के दौरान, सीएजी की रिपोर्ट में 2017 में बताया गया था भारतीय सेना के पास सिर्फ़ 10 दिन चलने लायक गोला-बारूद है, सेना पर गर्व करने का दावा करने वाली सरकार ऐसी नौबत कैसे आने दे सकती है?

देश की जनता, अपनी सेना का सम्मान करती है, उस पर गर्व करती है और इसके लिए उसे किसी नए सरकारी आयोजन की ज़रूरत नहीं है. जो लोग इस सरकार के समर्थक हैं वे भी और जो उससे नाख़ुश हैं वो भी, सेना के प्रति सम्मान रखते हैं लेकिन उस सम्मान की मात्रा, समय और प्रकार सरकारी निर्देश से तय नहीं हो सकता.

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सत्ता के खेल में सेना की भूमिका

भारत में सेना शुरू से धर्मनिरपेक्ष, ग़ैर-राजनीतिक और पेशेवर रही है. वह संविधान के अनुरूप नागरिक शासन के अधीन काम करती है, यही बात भारत को पाकिस्तान से अलग करती है जहां सेना सत्ता की राजनीति की बड़ी खिलाड़ी है.

रिटायर्ड सैनिक अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह ने एक लेख में विस्तार से सेना के राजनीतिकरण के ख़तरों के प्रति आगाह किया है.

उनका कहना है कि सेना की अपनी संस्कृति है, बैरकों में रहने वाले सैनिक नागरिक जीवन की बहुत सारी बुराइयों से दूर रहते हैं और अपनी रेजीमेंट की परंपरा और अनुशासन का पालन करते हैं, उन्हें नागरिक समाज के बहुत निकट ले जाने से उनकी सैन्य संस्कृति पर बुरा असर होगा.

सेना अब तक सवाल-जवाब, मीडिया की चिल्ल-पों और राजनीति की खींचतान से दूर रहकर अपना काम करती रही है, उसे नागरिक जीवन में इतनी जगह देने की कोशिश का सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि अब तक ऊंचे पायदान पर रही सेना भी समाज और राजनीति के कीचड़ में लिथड़ जाएगी.

लेफ़्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह ने बहुत मार्के की बात अपने लेख में लिखी है. उन्होंने लिखा है कि कर्नाटक के चुनाव में दो फौजी हीरो- जनरल थिमैया और फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा के बारे में बहुत सारी ग़लत-सलत बातें प्रचारित की गईं और उनकी पहचान कर्नाटक तक सीमित कर दी गई.

वे कहते हैं, “दोनों कर्नाटक के थे लेकिन उनकी सैनिक पहचान बिल्कुल अलग थी. वर्दीवालों के बीच जनरल थिमैया कुमाऊंनी अफ़सर और फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा राजपूत अफ़सर के तौर पर याद किए जाते हैं, ये बात असैनिक लोग नहीं समझ सकते.”

सेना के रिटायर्ड अधिकारी कई बार राज्यपाल जैसी भूमिकाएं निभाते रहे हैं. पिछली बीजेपी सरकार में जनरल बीसी खंडूरी, मोदी सरकार में जनरल वीके सिंह और कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर के मंत्री बनने के बाद कई सैनिक अधिकारियों की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बल मिलेगा.

सैनिकों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तक तो शायद फिर भी ठीक है, लेकिन अगर संस्था के तौर पर भारतीय सेना राजनीति के इतने करीब आएगी, और उसके अरमान अगर पाकिस्तान की सेना की तरह जागे, तो क्या होगा?

आप ही सोचिए सैनिक-सियासी गठबंधन देश के लोकतंत्र के लिए ख़तरा नहीं, तो और क्या है?

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